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बाजार भेजने से पूर्व केले को कैसे तैयार करें की मिले अधिकतम लाभ?

बाजार भेजने से पूर्व केले को कैसे तैयार करें की मिले अधिकतम लाभ?

आभासी तने से केले की कटाई के उपरांत , केले को बंच से अलग अलग हथ्थे में अलग करते है। इसके बाद इन हथ्थों को फिटकरी के पानी की टंकी में डालें @ 1 ग्राम फिटकरी प्रति 2.5 लीटर पानी की दर से मिलाते है। केले के इन हथ्थों को लगभग 3 मिनट के लिए डुबाने के बाद निकल लें। फिटकरी के घोल की वजह से केले के छिलकों के ऊपर के प्राकृतिक मोम हट जाती है एवं साथ साथ फल के ऊपर लगे कीड़ों के कचरे भी साफ हो जाते हैं। यह एक प्राकृतिक कीटाणुनाशक के रूप में कार्य करता है। इसके बाद दूसरे टैंक में एंटी फंगल लिक्विड हुवा सान (Huwa San), जिसके अंदर लिक्विड सिल्वर कंपोनेंट्स के साथ हाइड्रोजन पेरोक्साइड होता है जो एंटीफंगल के रूप में काम करता है,जो फंगस को बढ़ने नहीं देता है।

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विदेशों में बढ़ी देसी केले की मांग, 327 करोड़ रुपए का केला हुआ निर्यात हुवा सान एक बायोसाइड है एवं सभी प्रकार के बैक्टीरिया, वायरस, खमीर, मोल्ड और बीजाणु बनाने वालों के खिलाफ प्रभावी है। लीजियोनेला न्यूमोफिला के खिलाफ भी प्रभावी है। पर्यावरण के अनुकूल - व्यावहारिक रूप से पानी और ऑक्सीजन के लिए 100% अपघट्य हो जाता है। इसके प्रयोग से गंध पैदा नहीं होता है , उपचारित खाद्य पदार्थों के स्वाद को नहीं बदलता है। बहुत अधिक पानी के तापमान पर भी प्रभावशीलता और दीर्घकालिक प्रभाव देखे जाते हैं। अनुशंसित खुराक दर पर खपत के लिए सुरक्षित के रूप में मूल्यांकन किया गया। कोई कार्सिनोजेनिक या उत्परिवर्तजन प्रभाव नहीं, अमोनियम-आयनों के साथ प्रतिक्रिया नहीं करता है। इसे लम्बे समय तक भंडारित किया जा सकता है। 3% अनुशंसित दर पर प्रयोग करने से किसी भी प्रकार का कोई भी दुष्प्रभाव नहीं देखा गया है। इस घोल में केला के हथ्थों को 3 मिनट के लिए डूबाते है। हुवा सान @ 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर , घोल बनाते है। इस तरह से 500 लीटर पानी के टैंक में 250 मिलीलीटर हुवा सैन तरल डालते है । इन घोल से केले को निकालने के बाद केले से अतिरिक्त पानी निकालने के लिए केले को उच्च गति वाले पंखे से अच्छे ड्रेनेज फ्लोर पर जाली की सतह पर रखें। इस प्रकार से केले की प्रारंभिक तैयारी करते है। विशेष तौर से तैयार डिब्बों में पैक करते है। इस प्रकार से तैयार केलो को आसानी से दुरस्त या विदेशी बाज़ार में भेजते है।

हुवा-सैन क्या है?

हाइड्रोजन पेरोक्साइड और सिल्वर स्टेबलाइजर के संयोजन की प्रक्रिया दुनिया भर में अद्वितीय है और मूल हुवा-सैन तकनीक पर आधारित है, जिसे पिछले 15 वर्षों में रोम टेक्नोलॉजी में और विकसित किया गया था।

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यह तकनीक अद्वितीय है क्योंकि पेरोक्साइड को स्थिर करने के लिए एसिड जैसे किसी अन्य स्थिरीकरण एजेंट की आवश्यकता नहीं होती है। यह सब Huwa-San Technology के उत्पादों को गैर-अवशिष्ट और अत्यंत शक्तिशाली कीटाणुनाशक बनाता है।हुवा-सैन एक वन स्टॉप बायोसाइडल उत्पाद है जो बैक्टीरिया, कवक, खमीर, बीजाणुओं, वायरस और यहां तक ​​कि माइकोबैक्टीरिया के खिलाफ प्रभावी है और इसलिए इस उत्पादों को वाष्पीकरण के माध्यम से पानी, सतहों, औजारों और यहां तक ​​कि बड़े खाली क्षेत्रों को कीटाणुरहित करने के लिए कई क्षेत्रों में उपयोग किया जा सकता है। पिछले 15 वर्षों में, हुवा-सैन उत्पादों का प्रयोगशाला पैमाने पर और दुनिया भर में कई फील्ड परीक्षणों पर बड़े पैमाने पर परीक्षण किया गया था। तकनीकी ज्ञान के साथ हुवा-सैन के व्यापक अनुप्रयोग स्पेक्ट्रम के भीतर जानकारी की प्रचुरता विश्वव्यापी सफलता की कुंजी रही है। Huwa-San को लैब और फील्ड टेस्ट सेटिंग्स में पूरी तरह से शोध और विकसित किया गया है ,यह पूर्णतया सुरक्षित है और ये नतीजतन, हुवा-सैन उत्पाद कीटाणुशोधन के लिए नवीनतम मानकों को पूरा करते हैं ।

सितंबर महीने में मानसून के सक्रिय होने की वजह से बिहार एवम उत्तर प्रदेश में केला की खेती में थ्रिप्स का बढ़ता आक्रमण कैसे करें प्रबंधन?

सितंबर महीने में मानसून के सक्रिय होने की वजह से बिहार एवम उत्तर प्रदेश में केला की खेती में थ्रिप्स का बढ़ता आक्रमण कैसे करें प्रबंधन?

सितम्बर महीने में मानसून के सक्रिय होने की वजह से हो रही वर्षा के कारण से वातावरण में अत्यधिक नमी देखी जा रही है , इस वजह से केला में थ्रिप्स का आक्रमण कुछ ज्यादा ही देखने को मिल रहा है। पहले यह कीट माइनर कीट माना जाता था। इससे कोई नुकसान कही से भी रिपोर्ट नही किया गया था। लेकिन विगत दो वर्ष एवं इस साल अधिकांश प्रदेशों से इस कीट का आक्रमण देखा जा रहा है। पत्तियों के गब्हभे के अंदर थ्रिप्स पत्तियों को खाते रहते है एवं डंठल (पेटीओल्स ) की सतह पर विशिष्ट गहरे, वी-आकार के निशान दिखाई देते हैं। घौद में जब केला पूरी तरह से विकसित हो जाती हैं तो थ्रिप्स के लक्षण जंग के रूप में दिखाई देते हैं। थ्रीप्स पत्तियों पर, फूलों पर एवं फलों पर नुकसान पहुंचाते है ,पत्तियों का थ्रिप्स (हेलियनोथ्रिप्स कडालीफिलस ) के खाने की वजह से पहले पीले धब्बे बनते है जो बाद में भूरे रंग के हो जाते हैं और इस कीट की गंभीर अवस्था में प्रभावित पत्तियां सूख जाती हैं। इस कीट के वयस्क फलों में अंडे देते है एवं इस कीट के निम्फ फलों को खाते हैं। अंडा देने के निशान और खाने के धब्बे जंग लगे धब्बों में विकसित हो जाते हैं जिससे फल टूट जाते हैं। गर्मी के दिनों में इसका प्रकोप अधिक होता है। जंग के लक्षण पूर्ण विकसित गुच्छों में दिखाई देते हैं। पूवन, मोन्थन, सबा, ने पूवन और रस्थली (मालभोग)जैसे केलो में इसकी वजह से खेती बुरी तरह प्रभावित होता हैं। फूल के थ्रिप्स (थ्रिप्स हवाईयन्सिस ) वयस्क और निम्फ केला के पौधे में फूल निकलने से पहले फूलों के कोमल हिस्सों और फलों पर भोजन करती हैं और यह फूल खिलने के दो सप्ताह तक भी बनी रहती है। वयस्क और निम्फल अवस्था में चूसने से फलों पर काले धब्बे बन जाते हैं,जिसकी वजह से बाजार मूल्य बहुत ही कम मिलता है,जिससे किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है।

पहचान

केला में लगने वाला थ्रिप्स बेहद छोटे कीड़े होते हैं, जिनकी लंबाई आमतौर पर लगभग 1-2 मिमी होती है। उनके शरीर पतले, लम्बे होते हैं और आमतौर पर पीले या हल्के भूरे रंग के होते हैं। उनके पंखों पर लंबे बाल होते हैं, जो उन्हें एक विशिष्ट रूप देते हैं। केले के थ्रिप्स की पहचान करना उनके आकार के कारण चुनौतीपूर्ण हो सकता है, लेकिन केले के पौधे की पत्तियों और फलों की बारीकी से जांच करने से उनकी उपस्थिति का पता चल सकता है।

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जीवन चक्र

प्रभावी प्रबंधन के लिए केले के थ्रिप्स के जीवन चक्र को समझना आवश्यक है। ये कीड़े एक साधारण कायापलट से गुजरते हैं, जिसमें अंडा, लार्वा, प्यूपा और वयस्क चरण शामिल होते हैं। अंडे देने की अवस्था: मादा थ्रिप्स अपने अंडे केले के पत्तों, कलियों या फलों के मुलायम ऊतकों में देती हैं। अंडों को अक्सर एक विशेष ओविपोसिटर का उपयोग करके पौधों के ऊतकों में डाला जाता है। लार्वा चरण: एक बार अंडे सेने के बाद, लार्वा पौधे के ऊतकों को खाते हैं, जिससे नुकसान होता है। वे छोटे और पारभासी होते हैं, जिससे उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है। प्यूपा अवस्था: प्यूपा अवस्था एक गैर-आहार अवस्था है जिसके दौरान थ्रिप्स वयस्कों में विकसित होते हैं। वयस्क अवस्था: वयस्क थ्रिप्स प्यूपा से निकलते हैं और उड़ने में सक्षम होते हैं। वे कोशिकाओं को छेदकर और रस निकालकर पौधे के ऊतकों को खाते हैं, जिससे पत्तियाँ विकृत हो जाती हैं और फलों पर निशान पड़ जाते हैं।

केले के थ्रिप्स से होने वाली क्षति

केले के थ्रिप्स विभिन्न विकास चरणों में केले के पौधों को महत्वपूर्ण नुकसान पहुंचा सकते हैं जैसे...

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भोजन से होने वाली क्षति: थ्रिप्स पौधों की कोशिकाओं को छेदकर और उनकी सामग्री को चूसकर खाते हैं। इस भोजन के कारण पत्तियाँ विकृत हो जाती हैं, जिनमें चांदी जैसी धारियाँ और नेक्रोटिक धब्बे होते हैं। इससे फलों पर दाग पड़ सकते हैं, जिससे वे बिक्री के लिए अनुपयुक्त हो जाते हैं। वायरस के वेक्टर: केले के थ्रिप्स, बनाना स्ट्रीक वायरस और बनाना मोज़ेक वायरस जैसे पौधों के वायरस को प्रसारित कर सकते हैं, जो केले की फसलों पर विनाशकारी प्रभाव डाल सकते हैं। प्रकाश संश्लेषण में कमी: व्यापक थ्रिप्स खिलाने से पौधे की प्रकाश संश्लेषण की क्षमता कम हो सकती है, जिससे विकास और उपज कम हो सकती है।

केला की खेती में थ्रीप्स को कैसे करें प्रबंधित ?

केला की खेती के लिए सदैव प्रमाणित स्रोतों से ही स्वस्थ रोपण सामग्री लें ।मुख्य केले के पौधे के आस पास उग रहे सकर्स को हटा दें। परित्यक्त वृक्षारोपण क्षेत्रों को हटा दें क्योंकि ये कीट फैलने के स्रोत के रूप में काम करते हैं। इसके अतरिक्त निम्नलिखित उपाय करने चाहिए

विभिन्न कृषि कार्य

छंटाई: थ्रिप्स की आबादी को कम करने के लिए नियमित रूप से संक्रमित पत्तियों और पौधों के अवशेषों की कटाई छंटाई करें और हटा दें। बंच को ढके: थ्रिप्स के संक्रमण को रोकने के लिए विकसित हो रहे गुच्छे पॉलीप्रोपाइलीन से ढक दें । उचित सिंचाई: जल-तनाव वाले पौधों से बचने के लिए लगातार और उचित सिंचाई बनाए रखें, जो थ्रिप्स क्षति के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। स्वच्छ रोपण सामग्री: सुनिश्चित करें कि रोपण सामग्री थ्रिप्स और अन्य कीटों से मुक्त हो।

जैविक नियंत्रण

शिकारी और परजीवी: थ्रिप्स कीट की आबादी को नियंत्रित करने में मदद करने के लिए, शिकारी घुन और परजीवी ततैया जैसे थ्रिप्स के प्राकृतिक दुश्मनों के विकास को बढ़ावा दें। मिट्टी में थ्रिप्स प्यूपा को मारने के लिए, ब्यूवेरिया बेसियाना 1 मिली प्रति लीटर का तरल का छिड़काव करें।

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रासायनिक नियंत्रण

कीटनाशक: थ्रिप्स संक्रमण के प्रबंधन के लिए नियोनिकोटिनोइड्स और पाइरेथ्रोइड्स सहित कीटनाशकों का उपयोग किया जा सकता है। हालाँकि, अति प्रयोग से प्रतिरोध हो सकता है और गैर-लक्षित जीवों को नुकसान पहुँच सकता है। थ्रीप्स के प्रबंधन के लिए छिड़काव फूल निकलने के एक पखवाड़े के भीतर किया जाना चाहिए। जब फूल सीधी स्थिति में हो तो 2 मिली प्रति लीटर पानी में इमिडाक्लोप्रिड के साथ फूल के डंठल में इंजेक्शन भी प्रभावी होता है। केला के बंच( गुच्छों),आभासी तना और सकर्स को क्लोरपाइरीफॉस 20 ईसी, 2.5 मिली प्रति लीटर का छिड़काव करना चाहिए।

निगरानी और शीघ्र पता लगाना

थ्रिप्स संक्रमण के लक्षणों के लिए केले के पौधों की नियमित निगरानी करें। शीघ्र पता लगाने से समय पर हस्तक्षेप करने से कीट आसानी से प्रबंधित हो जाता है।

कीट प्रतिरोधी प्रजातियों का चयन

केले की कुछ किस्मों में थ्रिप्स संक्रमण की संभावना कम होती है। प्रतिरोधी किस्मों का चयन एक प्रभावी दीर्घकालिक रणनीति हो सकती है।

फसल चक्र

थ्रिप्स के जीवन चक्र को बाधित करने और उनकी संख्या कम करने के लिए केले की फसल को गैर-मेजबान पौधों के साथ बदलें।

जाल फसलें

जाल वाली फसलें लगाएं जो थ्रिप्स को मुख्य फसल से दूर आकर्षित करती हैं और जिनका कीटनाशकों से उपचार किया जा सकता है।

एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम)

एक समग्र दृष्टिकोण अपनाएं जो पर्यावरणीय प्रभाव को कम करते हुए केले के थ्रिप्स के प्रबंधन के लिए विभिन्न रणनीतियों को जोड़ती है। अंततः कह सकते है की केले की खेती के लिए केले के थ्रिप्स एक महत्वपूर्ण खतरा हैं, जो भोजन के माध्यम से और हानिकारक वायरस के संचरण दोनों के माध्यम से सीधे नुकसान पहुंचाते हैं। प्रभावी प्रबंधन के लिए सावधानीपूर्वक निगरानी और शीघ्र हस्तक्षेप के साथ-साथ कृषि, जैविक और रासायनिक नियंत्रण उपायों के संयोजन की आवश्यकता होती है। केले की फसल के स्वास्थ्य को संरक्षित करते हुए थ्रिप्स क्षति को कम करने के लिए आईपीएम जैसी स्थायी प्रथाएं आवश्यक हैं।

केले की खेती के लिए सबसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व पोटाश की कमी के लक्षण और उसे प्रबंधित करने की तकनीक

केले की खेती के लिए सबसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व पोटाश की कमी के लक्षण और उसे प्रबंधित करने की तकनीक

पोटाश, जिसे पोटेशियम (K) के रूप में भी जाना जाता है, केला सहित सभी पौधों के स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक आवश्यक मैक्रोन्यूट्रिएंट्स में से एक है। पोटेशियम पौधों के भीतर विभिन्न शारीरिक प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जैसे प्रकाश संश्लेषण, एंजाइम सक्रियण, ऑस्मोरग्यूलेशन और पोषक तत्व ग्रहण। केले के पौधों में पोटाश की कमी से उनकी वृद्धि, फल विकास और समग्र उत्पादकता पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। आइए जानते है केले के पौधों में पोटाश की कमी के प्रमुख लक्षणों के बारे में एवं उसे प्रबंधित करने के विभिन्न रणनीतियों के बारे में....

केले के पौधों में पोटाश की कमी के लक्षण

केले के पौधों में पोटेशियम की कमी कई प्रकार के लक्षणों के माध्यम से प्रकट होती है जो पौधे के विभिन्न भागों को प्रभावित करते हैं। समय पर निदान और प्रभावी प्रबंधन के लिए इन लक्षणों को समझना महत्वपूर्ण है। केले के पौधों में पोटाश की कमी के कुछ सामान्य लक्षण इस प्रकार हैं:

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पत्ती पर पोटाश के कमी के लक्षण

पत्ती के किनारों का भूरा होना: पुरानी पत्तियों के किनारे भूरे हो जाते हैं और सूख जाते हैं, इस स्थिति को पत्ती झुलसना कहा जाता है। पत्तियों का मुड़ना: पत्तियाँ ऊपर या नीचे की ओर मुड़ जाती हैं, जिससे उनका स्वरूप विकृत हो जाता है। शिराओं के बीच पीलापन: शिराओं के बीच पत्ती के ऊतकों का पीला पड़ना, जिसे इंटरवेनल क्लोरोसिस कहा जाता है, एक सामान्य लक्षण है। पत्ती परिगलन: गंभीर मामलों में, पत्तियों पर नेक्रोटिक (मृत) धब्बे दिखाई दे सकते हैं, जिससे प्रकाश संश्लेषक गतिविधि कम हो जाती है।

फल पर पोटाश के कमी के लक्षण

फलों का आकार कम होना: पोटाश की कमी से फलों का आकार छोटा हो जाता है, जिससे केले के बाजार मूल्य पर असर पड़ता है। असमान पकना: फल समान रूप से नहीं पकते हैं, जिससे व्यावसायिक उत्पादकों के लिए यह चुनौतीपूर्ण हो जाता है।

तना और गुच्छा पर पोटाश के कमी के लक्षण

रुका हुआ विकास: केले के पौधे की समग्र वृद्धि रुक ​​सकती है, जिसके परिणामस्वरूप उपज कम हो जाती है। छोटे गुच्छे: पोटाश की कमी से फलों के गुच्छे छोटे और पतले हो जाते हैं।

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जड़ पर पोटाश की कमी के लक्षण

कमजोर कोशिका भित्ति के कारण जड़ें कम सशक्त होती हैं और रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती हैं।

केले के पौधों में पोटाश की कमी का प्रबंधन

केले के पौधों में पोटाश की कमी के प्रबंधन में पोटेशियम के अवशोषण और उपयोग में सुधार के लिए मिट्टी और पत्तियों पर पोटेशियम के प्रयोग के साथ-साथ अन्य कृषि कार्य का संयोजन शामिल है। पोटाश की कमी को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के लिए यहां कुछ उपाय सुझाए जा रहे हैं, जैसे:

मृदा परीक्षण

मिट्टी में पोटेशियम के स्तर का आकलन करने के लिए मिट्टी परीक्षण करके शुरुआत करें। इससे कमी की गंभीरता को निर्धारित करने और उचित पोटेशियम उर्वरक प्रयोग करने के संबंध में सही मार्गदर्शन मिलेगा।

उर्वरक अनुप्रयोग

मिट्टी परीक्षण की सिफारिशों के आधार पर पोटेशियम युक्त उर्वरक, जैसे पोटेशियम सल्फेट (K2SO4) या पोटेशियम क्लोराइड (KCl) का प्रयोग करें। रोपण के दौरान या केला के विकास के दौरान साइड-ड्रेसिंग के माध्यम से मिट्टी में पोटेशियम उर्वरकों को शामिल करें। मिट्टी के पीएच की निगरानी करें, क्योंकि अत्यधिक अम्लीय या क्षारीय मिट्टी पोटेशियम की मात्रा को कम कर सकती है। यदि आवश्यक हो तो पीएच स्तर समायोजित करें।

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पत्तियों पर छिड़काव करें

गंभीर कमी के मामलों में, पत्तों पर पोटेशियम का छिड़काव त्वरित उपाय है। पत्तियों को जलने से बचाने के लिए पोटेशियम नाइट्रेट या पोटेशियम सल्फेट को पानी में घोलकर सुबह या दोपहर के समय लगाएं। मिट्टी की नमी को संरक्षित करने और मिट्टी के तापमान को लगातार बनाए रखने के लिए केले के पौधों के चारों ओर जैविक गीली घास लगाएं। इससे जड़ों द्वारा पोटेशियम अवशोषण में सुधार होता है।

संतुलित पोषण

सुनिश्चित करें कि पोषक तत्वों के असंतुलन को रोकने के लिए अन्य आवश्यक पोषक तत्व, जैसे नाइट्रोजन (एन) और फास्फोरस (पी), भी पर्याप्त मात्रा में मौजूद हो।आम तौर पर (प्रजाति एवं मिट्टी के अनुसार भिन्न भिन्न भी हो सकती है ), केले को मिट्टी और किस्म के आधार पर 150-200 ग्राम नत्रजन ( एन), 40-60 ग्राम फास्फोरस ( पी2ओ5) और 200-300 ग्राम पोटाश (के2ओ) प्रति पौधे प्रति फसल की आवश्यकता होती है। फूल आने के समय (प्रजनन चरण) में एक-चौथाई नत्रजन(N) और एक-तिहाई पोटाश (K2O) का प्रयोग लाभकारी पाया गया है। फूल आने के समय में नत्रजन का प्रयोग पत्तियों की उम्र बढ़ने में देरी करता है और गुच्छों के वजन में सुधार लाता है और एक तिहाई पोटाश का प्रयोग करने से फिंगर फिलिंग बेहतर होती है। ऊत्तक संवर्धन द्वारा तैयार केले के पौधे से खेती करने में नाइट्रोजन एवं पोटैशियम की कुल मात्रा को पांच भागों में विभाजित करके प्रयोग करने से अधिकतम लाभ मिलता है जैसे प्रथम रोपण के समय,दूसरा रोपण के 45 दिन बाद , तृतीय-90 दिन बाद, चौथा-135 दिन बाद; 5वीं-180 दिन बाद। फास्फोरस उर्वरक की पूरी मात्रा आखिरी जुताई के समय या गड्ढे भरते समय डालनी चाहिए।

जल प्रबंधन

पानी के तनाव से बचने के लिए उचित सिंचाई करें, क्योंकि सूखे की स्थिति पोटेशियम की कमी को बढ़ा सकती है।

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फसल चक्र

मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी के जोखिम को कम करने के लिए केले की फसल को अन्य पौधों के साथ बदलें।

रोग एवं कीट नियंत्रण

किसी भी बीमारी या कीट संक्रमण का तुरंत समाधान करें, क्योंकि वे पौधे पर दबाव डाल सकते हैं और पोषक तत्व ग्रहण करने में बाधा उत्पन्न करते हैं।

कटाई छंटाई और मृत पत्तियों को हटाना

स्वस्थ, पोटेशियम-कुशल पर्णसमूह के विकास को बढ़ावा देने के लिए नियमित रूप से क्षतिग्रस्त या मृत पत्तियों की छंटाई करें।

निगरानी और समायोजन

पोटेशियम उपचारों के प्रति पौधे की प्रतिक्रिया की लगातार निगरानी करें और तदनुसार उर्वरक प्रयोगों को समायोजित करें। अंत में कह सकते है की केले के पौधों में पोटेशियम की कमी से विकास, फल की गुणवत्ता और उपज पर महत्वपूर्ण नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस कमी को दूर करने और स्वस्थ और उत्पादक केले की फसल सुनिश्चित करने के लिए मिट्टी परीक्षण, उर्वरक प्रयोग और कृषि कार्यों सहित समय पर निदान और उचित प्रबंधन आवश्यक हैं। इन रणनीतियों को लागू करके, केला उत्पादक पोटेशियम पोषण को अनुकूलित करते हैं और बेहतर समग्र पौध स्वास्थ्य और फल उत्पादन प्राप्त करते हैं।

टिश्यू कल्चर तकनीक से इस राज्य में केले की खेती हो रही है

टिश्यू कल्चर तकनीक से इस राज्य में केले की खेती हो रही है

किसान भाई टिश्यू कल्चर तकनीक की सहायता से केले उगा सकते हैं। इससे कृषकों की आमदनी में काफी इजाफा होगा। साथ ही, फसल की गुणवत्ता भी अच्छी होगी। भारत के अंदर प्रमुख तोर पर बड़े पैमाने पर केले की खेती की जाती है। सब्जी से लगाकर चिप्स निर्मित करने तक केले की बेहद मांग है। अब ऐसी स्थिति में किसान भाई इसकी खेती कर काफी शानदार मुनाफा हांसिल कर सकते हैं। परंतु, किसान भाई केला उत्पादन के लिए टिश्यू कल्चर तकनीक का उपयोग कर सकते हैं।

टिश्यू कल्चर तकनीक से केला उत्पादन 

टिश्यू कल्चर तकनीक से
केले की खेती करना एक बेहद फायदेमंद व्यवसाय सिद्ध हो सकता है। इस तकनीक के माध्यम से निर्मित किए गए पौधे रोगमुक्त और एक जैसे ही होते हैं, जिससे फसल की गुणवत्ता के साथ-साथ पैदावार में सुधार होता है। इसमें पौधे के एक छोटे टुकड़े को एक खास माध्यम में उत्पादित किया जाता है। इस माध्यम में पोषक तत्व एवं हार्मोन होते हैं जो पौधे की कोशिकाओं को बड़ी तीव्रता से विभाजित करने में सहयोग करते हैं। कुछ ही, माह में पौधे पर्याप्त ढ़ंग से विकसित हो जाते हैं एवं उन्हें खेत के अंदर लगाया जा सकता है। ये भी पढ़ें: केले की खेती के लिए सबसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व पोटाश की कमी के लक्षण और उसे प्रबंधित करने की तकनीक

बिहार में टिश्यू कल्चर तरीके से खेती हो रही है 

बिहार राज्य के कृषक भाई भी टिश्यू कल्चर ढ़ंग से केले का उत्पादन कर रहे हैं, जिससे बिहार में केला उत्पादन में गुणवत्ता के साथ आमदनी बढ़ोतरी हो रही है। केले के पौधे का उत्पादन बेहतर तरीके से सूखा हुआ और रेतीली दोमट मिट्टी में सबसे शानदार होता है। मृदा को अच्छे तरीके से ढीला करें और खरपतवार को पूरी तरह से हटा दें। 

टिश्यू कल्चर तकनीक के क्या लाभ होते हैं ?

  • टिश्यू कल्चर तकनीक से निर्मित किए गए पौधे रोग से मुक्त होते हैं, जिससे फसल को बीमारियों से संरक्षण देने में सहयोग मिलता है।
  • टिश्यू कल्चर तकनीक से तैयार किए गए पौधे एक जैसे आकार के होते हैं, जिससे फसल की गुणवत्ता में काफी सुधार होता है।
  • टिश्यू कल्चर तकनीक से निर्मित किए गए पौधे आम तरीके से तैयार किए गए पौधों के मुकाबले में शीघ्र फल देने लगते हैं।
  • टिश्यू कल्चर तकनीक से तैयार किए गए पौधे परंपरागत तरीके से तैयार किए गए पौधों के मुकाबले में ज्यादा उत्पादन देते हैं।
इस किसान ने ग्रामीण किसानों के साथ मिलकर गांव को बना दिया केले का केंद्र

इस किसान ने ग्रामीण किसानों के साथ मिलकर गांव को बना दिया केले का केंद्र

आजकल बहुत सारे पढ़े लिखे नौजवान खेती किसानी की तरफ अपना रुख कर रहे हैं। युवा किसान अभिषेक आनंद वैज्ञानिक पद्धति के जरिए केला का उत्पादन करके अन्य युवाओं को प्रेरित करने वाली एक अच्छी मिसाल बन चुके हैं। उन्होंने अपने किसान भाइयों के साथ सामंजस्य के साथ सीतामढ़ी को मेजरगंज केले के हब के तौर पर प्रसिद्ध किया है। आपको बतादें कि किसान पूर्व में अपना जीवनयापन करने के लिए केवल खेती-किसानी तक ही रह जाते थे। परंतु, वर्तमान में कृषकों की आमदनी को दोगुना करने हेतु उन्हें कृषि व्यवसाय के साथ जोड़ा जा रहा है। कृषि व्यवसाय के जरिए किसान भाइयों को अपनी फसल का समुचित मूल्य प्राप्त करने में सहायता मिल रही है। अब आगे जिस तरह से कृषि व्यवसाय का विस्तार हो रहा है, इसके चलते गांव में भी रोजगार के अवसर उत्पन्न हो रहे हैं। इससे कृषकों की आर्थिक क्षमता सुद्रण हुई है। साथ ही, ग्रामीण लोगों की आजीविका में भी काफी सुधार देखने को मिल रहा है। भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में फिलहाल किसान खेती करने के साथ कृषि व्यवसाय मॉडल अपना रहे हैं। इसी कड़ी में अभिषेक आनंद भी किसानों में शम्मिलित हैं। बिहार राज्य के अभिषेक आनंद, जिन्होंने अपने गांव के बाकी किसानों के साथ मिलकर केला की वैज्ञानिक खेती की है। बेहतरीन आमदनी हेतु खेत पर ही प्रोसेसिंग इकाई स्थापित की है। साथ ही, केला चिप्स के कृषि व्यवसाय से बेहतरीन आमदनी अर्जित कर रहे हैं। इन्होंने खुद के उत्पाद की अच्छी खासी ब्रांडिंग भी करवाई है, जिससे विपणन में भी खूब सहायता प्राप्त हो रही है। वर्तमान में अभिषेक आनंद के खेत पर उत्पादित होने वाले केले से निर्मित चिप्स देशभर में प्रशिद्ध हो रही हैं।

वैज्ञानिक खेती के जरिए बढ़ी केले की उत्पादकता

अभिषेक आनंद द्वारा बीते थोड़े समय पूर्व ही टिशू कल्चर तकनीक के जरिए केला की जी-9 किस्म की बागवानी चालू की थी। अच्छे अवसरों की खोज में केला चिप्स निर्मित करने की प्रोसेसिंग इकाई भी स्थापित की गई। अपनी इन कोशिशों को लेकर अभिषेक आनंद ने बताया है, कि केला की अच्छी पैदावार देने वाली तकनीकों की जानकारी हेतु उन्होंने निजी जनपद सीतामणी मौजूद उद्यान विभाग के कार्यालय में संपर्क साधा। बतादें, कि यहां पर अभिषेक आनंद को सरकार की तरफ से जारी विभिन्न योजनाओं की जानकारी दी गई। बतादें, कि अभिषेक आनंद स्वयं भी कृषि स्नातक हैं, इस वजह से उनको केला की बागवानी से करने में अधिक कठिनाई नहीं हुई।

अभिषेक आनंद ने कोरोना महामारी के समय बागवानी करनी चालू की थी

अभिषेक आनंद ने अपनी ग्रेजुएशन खत्म करने के उपरांत निज गांव सीतामणी के मेजरगंज पहुँच गए। कोरोना महामारी के दौरान अभिषेक आनंद के पास काफी वक्त था, परंतु उनको यह समझ नहीं आ रहा था, कि खेती के ज्ञान का समुचित उपयोग रचनात्मक रूप से कहां किया जाए। ये भी पढ़े: इस तरह लगाएं केला की बागवानी, बढ़ेगी पैदावार कोरोना महामारी के दौरान केवल कृषि क्षेत्र ही सर्वाधिक सक्रिय था, इस वजह से उन्होंने केला की बागवानी करने का मन बनाया। जब वह कृषि विभाग के कार्यालय सहायता हेतु पहुंचे तब वहां उनको केला की आधुनिक कृषि की तकनीकों की जानकारी प्राप्त हुई। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना में आवेदन करने पर ड्रिप सिंचाई के लिए 90 प्रतिशत अनुदान प्राप्त हो गया। साथ ही, मुख्यमंत्री बागवानी मिशन के अंतर्गत आवेदन करने पर केला की बागवानी करने हेतु जी-9 किस्त केला की पौध सामग्री भी प्राप्त हो गई। इसके साथ कृषि निदेशालय, बिहार सरकार की तरफ से फल की तुड़ाई एवं इसके प्रबंधन हेतु 90 फीसद अनुदान पर प्लास्टिक कैरेट का भी फायदा मिल गया है।

यहां का केला विदेशों तक पहुँच रहा है

युवा किसान अभिषेक आनंद की कोशिशों का परिणाम यह रहा है, कि बिहार राज्य के सीतामढ़ी के अतिरिक्त फिलहाल नेपाल एवं ढ़ाका तक केला की जी-9 किस्म की मांग बढ़ चुकी है। वर्तमान में अभिषेक आनंद केला की बागवानी सहित इसकी प्रोसेसिंग भी कर रहे हैं। केला चिप्स की प्रोसेसिंग इकाई हेतु अभिषेक आनंद को बिहार सरकार की तरफ से 25% प्रतिशत अनुदान समेत 11 लाख रुपये का कर्जा भी प्राप्त हो गया था। अभिषेक आनंद बताते हैं, कि आज उनके साथ लोकल स्तर पर 8-10 किसान जुड़े हुए हैं, जिसमें 5 युवा किसान शम्मिलित हैं। यह सब मिलकर 7 एकड़ भूमि पर केला की वैज्ञानिक तकनीक के माध्यम से बागवानी करके अच्छी खासी आय अर्जित कर ले रहे हैं।
जानें लाल केले की विशेषताओं और फायदों के बारे में

जानें लाल केले की विशेषताओं और फायदों के बारे में

आज के दौर में किसान फसलों और फलों की आधुनिक एवं नवीन प्रजातियों के बीज बोकर अच्छा खासा मुनाफा अर्जित कर रहे हैं। हालाँकि, कुछ किसान आज भी परंपरागत फसलों का उत्पादन करके अपना जीवनयापन कर रहे हैं। इसी कड़ी में लाल केला भी बाजार में आ चुका है। बतादें, कि लाल केला पीले केले की तुलना में अधिक उत्पादन देता है। इसके एक गुच्छे में करीब 100 केले मौजूद होते हैं। वर्तमान में बाजार के अंदर इस केले का भाव 200 रुपये दर्जन से अधिक होता है।

लाल केले में औषधीय गुण विघमान होते हैं

केला हमारे स्वास्थ के लिए फायदेमंद रहता है। इसका मीठा स्वाद लोगों को काफी भाता है। इसमें बीज नहीं पाए जाने इस वजह से इसका सेवन भी काफी आसान होता है। यह इतना मुलायम होता है, कि बूढ़े, जवान यहां तक कि बच्चे भी इसको बड़े चाव से खा लेते हैं। इसमें विघमान विटामिन सी, विटामिन बी-6, कार्बोहाइड्रेट, मैग्नीशियम, जिंक, लोहा, फास्फोरस, कैल्शियम, सोडियम, पोटेशियम और विटामिन ए की प्रचूर मात्रा इसको लोगों के मध्य काफी ज्यादा लोकप्रिय बनाती है। दरअसल, आजतक आपने केवल पीला केला ही देखा अथवा खाया होगा। परंतु, हम आपको जिस केला के संबंध में बताने जा रहे हैं, वह लाल केला है। यह दिखने में जितना सुंदर है, स्वाद में भी उतना ही ज्यादा शानदार भी है। इतना ही नहीं इसमें सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि इसमें पीले केले से ज्यादा औषधीय गुण विघमान होते हैं। ये भी पढ़े: विदेशों में बढ़ी देसी केले की मांग, 327 करोड़ रुपए का केला हुआ निर्यात

लाल केला सबसे पहले कहाँ उत्पादित किया गया था

जानकारी के लिए बतादें, कि विशेष रूप से लाल केले की खेती ऑस्ट्रेलिया में पहले की जाती थी। परंतु, बदलते समय के साथ-साथ यह मेक्सिको, अमेरिका और वेस्टइंडीज तक पहुंच गया है। हालांकि, अब भारत में भी किसान इसकी खेती करने लगे हैं। उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और केरल में लाल रंग के केले की बड़े पैमाने पर खेती हो रही है। किसान इसकी खेती कर के मोटा मुनाफा कमा रहे हैं। इस केले की मांग इसके रंग के कारण और इसके साथ ही इसमें मौजूद बीटा- कैरोटीन के चलते भी इसकी बाजार में काफी मांग है।

पीले केले के तुलनात्मक लाल केला अधिक पैदावार देता है

लाल केला पीले केले की तुलना में ज्यादा पैदा होता है। लाल केले के एक गुच्छे में करीब 100 केले होते हैं। वर्तमान में बाजार के अंदर इस केले का भाव 200 रुपये दर्जन से अधिक होता है। इसका उत्पादन शुष्क जलवायु में किया जाता है। इस केले का तना काफी ज्यादा लंबा होता है। उत्तर प्रदेश में इसकी खेती मिर्जापुर में की जा रही है। वर्ष 2021 में मिर्जापुर उद्यान विभाग ने लाल केले के 5 हजार पौधे मंगाए थे, इसके उपरांत किसानों के मध्य इन पौधों को वितरित किया गया है।